विलुप्त होने की कगार पर लेसवा के पेड़...पत्तियां, फल और छाल से बनती हैं औषधियां
भाटापारा- लेसवा 250 रुपए किलो। यह उस फल की कीमत है जिसका पेड़ विलुप्त होने की कगार पर है। इसलिए वानिकी वैज्ञानिकों ने पुनरुत्पादन, संरक्षण और संवर्धन की जरूरत बताई है। मालूम हो कि इसके फल का उपयोग अचार बनाने में होता है तो बीज, पत्तियां और छाल से आयुर्वेदिक औषधियां बनाई जा रहीं हैं।
कार्डिया डाईकोटोमा के नाम से पहचाना जाता है लेसवा को लेकिन इसे लसोड़ा, लसेड़ा, गोंदी और निसोर के नाम से भी जाना जाता है। सीजन चालू हो चुका है लेकिन आवक इतनी कम है कि भाव 250 रुपए किलो की उच्चतम ऊंचाई पर जा पहुंचा है। तेजी के कारणों की खोज में वानिकी वैज्ञानिकों को जो जानकारी मिली है, उसने उनकी चिंता बढ़ा दी है। संरक्षण की दिशा में काम नहीं होने से इसके पेड़ों की कटाई के बाद अब यह लगभग खत्म होने की स्थिति में पहुंच चुका है।
फिलहाल यहां ही
गरियाबंद, मैनपुर, बस्तर, मुंगेली, मरवाही, सरगुजा में कभी कार्डिया डाईकोटोमा के पेड़ बहुतायत में मिला करते थे। अब बहुतायत वाले इन क्षेत्रों में भी इनका जीवन संकट में है। प्रदेश के सभी जिलों में इसके वृक्ष मिलते हैं लेकिन संरक्षण और संवर्धन को लेकर बरती जा रही लापरवाही से यह पेड़ संकट में है। स्थिति जैसी है उसे देखकर वानिकी वैज्ञानिकों ने अब इसे संकट की श्रेणी में आ चुके वृक्ष की सूची में शामिल कर लिया है।
यह मेडिशनल प्रॉपर्टीज
कार्डिया डाईकोटोमा में हुए अनुसंधान में फल, पत्तियों और छाल में प्रोटीन, क्रुड फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, फैट, फाइबर, फास्फोरस, कैल्शियम और एंटी इन्फ्लेमेटरी जैसे अहम औषधीय गुणों के होने की जानकारी साझा की गई है और कहा गया है कि इनकी मदद से कई बीमारियों की रोकथाम की जा सकती है।
इन बीमारियों की रोकथाम
फलों के सेवन से लीवर का संचालन नियंत्रित किया जा सकता है। तो बालों में आने वाली सफेदी भी दूर की जा सकती है। हाई ब्लड प्रेशर जैसी आम शिकायत भी दूर करने में मदद मिलती है। पत्तियों को पीसकर लगाने से खुजली, स्किन एलर्जी जैसी समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। गले की खराश, दांत दर्द, छाले और सूजन के लिए इसकी छाल को सही माना गया है। गठिया जैसी आम हो चुकी बीमारी को भी दूर करने में इसे उपयुक्त बताया गया है। इन्हीं वजहों से बीज, पत्तियां और छाल की खरीदी औषधि निर्माण कंपनियां कर रहीं हैं।
मानवजनित दबाव
बहुउद्देशीय प्रजाति होने कारण वनों में इसकी आबादी पर मानवजनित दबाव है। प्राकृतिक रूप से यह बीजों के द्वारा पुनर्जीवित होता है लेकिन बीज बेधक से संक्रमित होने के कारण पुनरुत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। कृत्रिम पुनरुत्पादन से ना केवल इसकी आबादी को प्रकृति में बनाए रखने में मदद मिल सकती है बल्कि समुदायों की आजीविका की जरूरतें पूरी की जा सकती है।
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